नोटों पर कहां से आई गांधी जी की तस्वीर









(फोटो: कोलकाता स्थित वायसराय हाउस में फ्रेडरिक पेथिक लॉरेंस के साथ गांधीजी (ऊपर) और भारतीय नोट)

नई दिल्ली. सरकार के मुताबिक, इस साल के अंत से देसी कागज पर छपे नोटों की बिक्री शुरू हो जाएगी। वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने हाल ही में लोकसभा में कहा था कि अब तक सभी नोटों की छपाई विदेशों से आयातित कागज पर होती है जबकि स्याही भारत में ही बनती है, इसलिए अब सरकार देसी कागज पर ही नोटों की छपाई शुरू करेगी।
 
देसी कागज के नोट पर भी होंगे गांधी जी
भारतीय करंसी पर फिलहाल गांधीजी की तस्वीर अंकित है। देसी कागज पर छपने वाला नोटों पर भी ये ही तस्वीर अंकित होगी। ये हमारी करंसी का ट्रेडमार्क भी है। लेकिन, सवाल यह उठता है कि गांधीजी की यह तस्वीर कहां से आई, जो ऐतिहासिक और हिंदुस्तान की करंसी का ट्रेडमार्क बन गई। दरअसल यह सिर्फ पोट्रेट फोटो नहीं, बल्कि गांधीजी की संलग्न तस्वीर है। इसी तस्वीर से गांधीजी का चेहरा पोट्रेट के रूप में लिया गया।

कहां की है यह तस्वीर
यह तस्वीर उस समय खींची गई, जब गांधीजी ने तत्कालीन बर्मा और भारत में ब्रिटिश सेक्रेटरी के रूप में कार्यरत फ्रेडरिक पेथिक लॉरेंस के साथ कोलकाता स्थित वायसराय हाउस मेंमुलाकात की थी। इसी तस्वीर से गांधीजी का चेहरा पोट्रेट के रूप में भारतीय नोटों पर अंकित किया गया।
Source : moneybhaskar.com

एक नास्तिक की भक्ति..........

हरिराम नामक आदमी शहर के एक छोटी सी गली में रहता था। वह एक दवाखाने का मालिक था।
सारी दवाइयों की उसे अच्छी जानकारी थी। दस सालका अनुभव होने के कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन सी दवाई कहाँ रखी है। वह इस पेशे को बड़े ही शौक से बहुत ही निष्ठा से करता था।दिन-ब-दिन उसके दुकान में सदैव भीड़ लगी रहती थी। वह ग्राहकों को वांछित दवाइयों को सावधानी और इत्मीनान होकर देता था।
पर उसे भगवान पर कोई भरोसा नहीं था वह एक नास्तिक था। भगवान के नाम से ही वह चिढ़ने लगता था। घरवालों उसे बहुत समझाते पर वह उनकी एक न सुनता था। खाली वक्त मिलने पर वह अपने दोस्तों के संग मिलकर, घर या दुकान में ताश खेलता था। एक दिन उसके दोस्त उसका हालचाल पूछने दुकान में आए अचानक बहुत जोर से बारिश होने लगी। बारिश की वजह से दुकान में भी कोई नहीं था। बस फिर क्या, सब दोस्त मिलकर ताश खेलने लगे। एक छोटा लड़का उसके दूकान में दवाई लेने पर्चा लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा था। हरिराम ताश खेलने में इतना मशगूल था कि बारिश में आए हुए उस लड़के पर उसकी नजर नहीं पड़ी। ठंड़ से ठिठुरते हुए उस लड़के ने दवाई का पर्चा बढ़ाते हुए कहा- “साहब जी मुझे ये दवाइयाँ चाहिए, मेरी माँ बहुत बीमार है, उनको बचा लीजिए. बाहर और सब दुकानें बारिश की वजह से बंद है। आपके दुकान को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माँ बच जाएगी। यह दवाई उनके लिए बहुत जरूरी है। इस बीच लाइट भी चली गई और सब दोस्त जाने लगे। बारिश भी थोड़ा थम चुका था।

“ उस लड़के की पुकार सुनकर ताश खेलते-खेलते ही हरिराम ने दवाई के उस पर्चे को हाथ में लिया और दवाई लेने को उठा ताश के खेल को पूरा न कर पाने के कारण अनमने से अपने अनुभव से अंधेरे में ही दवाई की उस शीशी को झट से निकाल कर उसने लड़के को दे दिया। उस लड़के ने दवाई का दाम पूछा और उचित दाम देकर बाकी के पैसे भी अपनी जेब में रख लिया। लड़का खुशी-खुशी दवाई की शीशी लेकर चला गया। वह आज दूकान को जल्दी बंद करने की सोच रहा था।थोड़ी देर बाद लाइट आ गई और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने दवाई की शीशी बदल कर दे दी है।

जो दवाई उसने वह लड़के को दिया था, वह चूहे मारने वाली जहरीली दवा है जिसे उसके किसी ग्राहक ने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था और ताश खेलने की धुन में उसे अन्य दवाइयों के बीच यह सोच कर रख दिया था कि ताश की बाजी के बाद फिर उसे अपनी जगह वापस रख देगा। अब उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसकी दस साल की नेकी पर मानो जैसे ग्रहण लग गया। उस लड़के बारे में वह सोच कर तड़पने लगा। सोचा यदि यह दवाई उसने अपनी बीमार माँ को देगा, तो वह अवश्य मर जाएगी। लड़का भी बहुत छोटा होने के कारण उस दवाई को तो पढ़ना भी नहीं जानता होगा।

एक पल वह अपनी इस भूल को कोसने लगा और ताश खेलने की अपनी आदत को छोड़ने का निश्चय कर लिया पर यह बात तो बाद के बाद देखा जाएगा। अब क्या किया जाए? उस लड़के का पता ठिकाना भी तो वह
नहीं जानता। कैसे उस बीमार माँ को बचाया जाए? सच कितना विश्वास था उस लड़के की आंखों में। हरिराम
को कुछ सूझ नहीं रहा था। घर जाने की उसकी इच्छा अब ठंडी पड़ गई। दुविधा और बेचैनी उसे घेरे हुए था। घबराहट में वह इधर-उधर देखने लगा। पहली बार उसकी दृष्टि दीवार के उस कोने में पड़ी, जहाँ उसके
पिता ने जिद्द करके भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीर दुकान के उद्घाटन के वक्त लगाया था। पिता से हुई बहस में एक दिन उन्होंने हरिराम से भगवान को कम से कम एक शक्ति के रूप मानने और पूजने की मिन्नत की थी।
उन्होंने कहा था कि भगवान की भक्ति में बड़ी शक्ति होती है, वह हर जगह व्याप्त है और हमें सदैव हर कार्य करने की प्रेरणा देता है। हरिराम यह सारी बात याद आने लगी। आज उसने इस अद्भुत शक्ति को आज़माना चाहा। उसने कई बार अपने पिता को भगवान की तस्वीर के सामने कर जोड़कर, आंखें बंद करते हुए पूजते देखा था। उसने भी आज पहली बार कमरे के कोने में रखी उस धूल भरे कृष्ण की तस्वीर को देखा और आंखें बंद कर दोनों हाथों को जोड़कर वहीं खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद वह छोटे लड़का फिर दुकान में आया। हरिराम के पसीने छूटने लगे। वह बहुत अधीर हो उठा। पसीने को पोंछते हुए उसने कहा- क्या बात है! बेटे! तुम्हें
क्या चाहिए? लड़के की आंखों से पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा- बाबूजी! बाबूजी! माँ को बचाने के लिए मैं दवाई की शीशी लिए भागे जा रहा था, घर के करीब पहुँचभी गया था, बारिश की वजह से ऑंगन में पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाई की शीशी गिर कर टूट गई। क्या आप मुझे वही दवाई की दूसरी शीशी दे सकते हैं? बाबूजी? लड़के ने उदास होकरपूछा।
हाँ! हाँ ! क्यों नहीं?
हरिराम ने राहत की साँस लेते हुए कहा। लो, यह दवाई!  और हरिराम उस दवाई की नई शीशी उसे थमाते हुए कहा। पर! पर!
मेरे पास तो पैसे नहीं है, उस लड़के ने हिचकिचाते हुए बड़े भोलेपन से कहा।
हरिराम को उस बिचारे पर दया आई।
कोई बात नहीं- तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँ को बचाओ। जाओ जल्दी करो, और हाँ अब
की बार ज़रा संभल के जाना।
लड़का, अच्छा बाबूजी!
कहता हुआ खुशी से चल पड़ा।
अब हरिराम को जान में जान आई।
# भगवान को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथों से उस धूल भरे तस्वीर को लेकर अपनी धोती से पोंछने
लगा और अपने सीने से लगा लिया। अपने भीतर हुए इस परिवर्तन को वह पहले अपने घरवालों को सुनाना चाहता था। जल्दी दुकान को बंद करके वह घर को रवाना हुआ।उसके नास्तिकता की घोर अंधेरी रात भी अब बीत गई थी और अगले दिन की नई सुबह एक नए हरिराम की प्रतीक्षा कर रही थी।....

यह संसार क्या है?

एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे।
एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया।
महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे।
उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे।
वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि
इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।
कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा।
वह खुशमिजाज और जिंदादिल था।
महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे।
उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा
तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।
उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो
उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को
अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना।
वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।'
कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा..
'संसार भी ऐसा ही शीशमहल है
जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है।
जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं,
वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।
जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं
उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता।

गुरुवर कृपा

एक राजा था. उसे पढने लिखने का बहुत शौक था. एक बार उसने मंत्री-परिषद् के माध्यम से अपने लिए एक शिक्षक की व्यवस्था की. शिक्षक राजा को पढ़ाने के लिए आने लगा. राजा को शिक्षा ग्रहण करते हुए कई महीने बीत गए, मगर राजा को कोई लाभ नहीं हुआ. गुरु तो रोज खूब मेहनत करता थे परन्तु राजा को उस शिक्षा का कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था. राजा बड़ा परेशान, गुरु की प्रतिभा और योग्यता पर सवाल उठाना भी गलत था क्योंकि वो एक बहुत ही प्रसिद्द और योग्य गुरु थे. आखिर में एक दिन रानी ने राजा को सलाह दी कि राजन आप इस सवाल का जवाब गुरु जी से ही पूछ कर देखिये.
राजा ने एक दिन हिम्मत करके गुरूजी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी, ” हे गुरुवर , क्षमा कीजियेगा , मैं कई महीनो से आपसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ पर मुझे इसका कोई लाभ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों है ?”
गुरु जी ने बड़े ही शांत स्वर में जवाब दिया, ” राजन इसका कारण बहुत ही सीधा सा है…”
” गुरुवर कृपा कर के आप शीघ्र इस प्रश्न का उत्तर दीजिये “, राजा ने विनती की.
गुरूजी ने कहा, “राजन बात बहुत छोटी है परन्तु आप अपने ‘बड़े’ होने के अहंकार के कारण इसे समझ नहीं पा रहे हैं और परेशान और दुखी हैं. माना कि आप एक बहुत बड़े राजा हैं. आप हर दृष्टि से मुझ से पद और प्रतिष्ठा में बड़े हैं परन्तु यहाँ पर आप का और मेरा रिश्ता एक गुरु और शिष्य का है. गुरु होने के नाते मेरा स्थान आपसे उच्च होना चाहिए, परन्तु आप स्वंय ऊँचे सिंहासन पर बैठते हैं और मुझे अपने से नीचे के आसन पर बैठाते हैं. बस यही एक कारण है जिससे आपको न तो कोई शिक्षा प्राप्त हो रही है और न ही कोई ज्ञान मिल रहा है. आपके राजा होने के कारण मैं आप से यह बात नहीं कह पा रहा था.
कल से अगर आप मुझे ऊँचे आसन पर बैठाएं और स्वंय नीचे बैठें तो कोई कारण नहीं कि आप शिक्षा प्राप्त न कर पायें.”
राजा की समझ में सारी बात आ गई और उसने तुरंत अपनी गलती को स्वीकारा और गुरुवर से उच्च शिक्षा प्राप्त की .
मित्रों, इस छोटी सी कहानी का सार यह है कि हम रिश्ते-नाते, पद या धन वैभव किसी में भी कितने ही बड़े क्यों न हों हम अगर अपने गुरु को उसका उचित स्थान नहीं देते तो हमारा भला होना मुश्किल है. और यहाँ स्थान का अर्थ सिर्फ ऊँचा या नीचे बैठने से नहीं है , इसका सही अर्थ है कि हम अपने मन में गुरु को क्या स्थान दे रहे हैं। क्या हम सही मायने में उनको सम्मान दे रहे हैं या स्वयं के ही श्रेस्ठ होने का घमंड कर रहे हैं ? अगर हम अपने गुरु या शिक्षक के प्रति हेय भावना रखेंगे तो हमें उनकी योग्यताओं एवं अच्छाइयों का कोई लाभ नहीं मिलने वाला और अगर हम उनका आदर करेंगे, उन्हें महत्व देंगे तो उनका आशीर्वाद हमें सहज ही प्राप्त होगा.

विपत्ति और घबराहट

एक राजा अपने कुछ सेवकों को साथ लेकर कहीं दूर देश को जा रहा था। रास्ते में कुछ यात्रा समुद्र की थी इसलिए जहाज में बैठकर चलने का प्रबन्ध किया। राजा अपने सेवकों समेत जहाज में सवार हुआ। मल्लाहों ने लंगर खोल दिया।
जहाज जब कुछ दूर आगे चला तो लहरों के थपेड़ों के साथ टकरा कर वह हिलने लगा। सब लोग कई बार यात्रा कर चुके थे इसलिए कोई व्यक्ति इस हिलने डुलने से घबराया नहीं किन्तु एक सेवक जो बिल्कुल नया था। चारों ओर पानी ही पानी और बीच में डगमगाता हुआ जहाज देखकर बुरी तरह घबराने लगा। उसकी सारी देह काँप रही थी। मुँह से घिग्घी बंध रही थी नसों का लोहू पानी हुआ जा रहा था।
उसके साथी अन्य सेवकों ने समझाया, राजा ने ढांढस बंधाया। उसे बार-बार समझाया जा रहा था कि ‘यह विपत्ति देखने में ही बड़ी मालूम देती है वास्तव में तो प्रकृति की साधारण सी हलचल है। हम लोगों को इनसे डरना नहीं चाहिये और धैर्यपूर्वक अच्छा अवसर आने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।’ लेकिन इस समझाने बुझाने का उस पर कुछ असर नहीं हुआ। उसका डर और घबराहट बढ़ रहे थे धैर्य छोड़ कर वह घिग्घी बाँधकर रोने लगा।
यात्रा करने वालों में से एक सेवक बहुत बुद्धिमान था। उसने राजा से कहा-महाराज आज्ञा दें तो मैं इनका डर दूर कर सकता हूँ। राजा ने आज्ञा दे दी।
वह उठा और उस बहुत डरने वाले यात्री को उठाकर समुद्र में फेंक दिया। जब तीन चार गोते लग गये तो उसे पानी में से निकाल लिया गया। और जहाज के एक कोने पर बिठा दिया गया। अब न तो वह रो रहा था और न डर रहा था।
राजा ने उस बुद्धिमान सेवक से पूछा इसमें क्या रहस्य है कि तुमने इसे पानी में पटक दिया और अब यह निकला है तो बिलकुल नहीं डर रहा है?
उस सेवक ने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक कहा- श्रीमान! इससे पहले इसने डूबने का कष्ट नहीं देखा और न यह जहाज का महत्व जानता था। अब इसने वह जानकारी प्राप्त कर ली है तो घबराना छोड़ दिया है।
हम साधारण सी विपत्ति को देखकर धैर्य छोड़ देते हैं और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। उस समय हमें स्मरण करना चाहिये दूसरे लोग जो इससे भी हजारों गुनी विपत्तियों में पड़े हैं और उन्हें सह रहे हैं। इस विपत्ति के समय में भी जो सुविधाएं हमें प्राप्त हैं उनके लिये ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिये क्योंकि दूसरे असंख्य मनुष्य उनसे भी वंचित हैं।

 Source : अखण्ड ज्योति 1940 दिसम्बर

मानवता के मूल्यों का महत्त्व

एक स्कूल में टीचर ने अपने छात्रो को एक कहानी सुनाई और बोली एक समय की बात है की
एक समय एक छोटा जहाज दुर्घटना ग्रस्त हो गया .
उस पर पति पत्नी का एक जोड़ा सफ़र कर रहा था .
उन्होने देखा की जहाज पर एक लाइफबोट है जिसमे एक ही व्यक्ति बैठ सकता है, जिसे देखते ही वो आदमी अपनी पत्नी को धक्का देते हुए खुद कूद कर उस लाइफबोट पर बैठ गया .
उसकी पत्नी जोर से चिल्ला कर कुछ बोली ....
टीचर ने बच्चो से पूछा की तुम अनुमान लगाओ वो चिल्लाकर क्या बोली होगी
बहुत से बच्चो ने लगभग एक साथ बोला की वो बोली होगी की तुम बेवफा हो , मे अंधी थी जो तुमसे प्यार किया ,मे तुमसे नफरत करती हूँ.
तभी टीचर ने देखा की एक बच्चा चुप बैठा है और कुछ नहीं बोल रहा ..
....उसने उसे बुलाया और कहा बताओ उस महिला ने क्या कहा होगा.
तो वो बच्चा बोलो मुझे लगता है की उस महिला ने चिल्लाकर कहा होगा की “अपने बच्चे का ख्याल रखना “.
टीचर को आश्चर्य हुआ और बोली क्या तुमने ये कहानी पहले सुनी है
उस बच्चे ने कहा नहीं लेकिन मेरी माँ ने मरने से पहले मेरे पिता को यही कहा था .
तुम्हारा जवाब बिलकुल सही है .
फिर वो जहाज डूब गया, और वो आदमी अपने घर गया और अकेले ही अपनी मासूम बेटी का पालन पोषण कर उसे बड़ा किया .
बहुत वर्षो के बाद उस आदमी की मृत्यु हो जाती है तो वो लड़की को घर के सामान मे अपने पिता की एक डायरी मिलती है जिसमे उसके पिता ने लिखा था की..... ..
जब वो जहाज पर जाने वाले थे तब ही उन्हें ये पता लग गया था की उसकी पत्नी एक गंभीर बीमारी से ग्रसित है और उसके बचने की उम्मीद नहीं है,
फिर भी उसको बचाने के लिए उसे लेकर जहाज से कही जा रहे थे इस उम्मीद मे की कोई इलाज हो सके .
लेकिन दुर्भाग्य से दुर्घटना हो गयी,
वो भी उसके साथ समुद्र की गहराइयों मे डूब जाना चाहता था,
लेकिन सिर्फ अपनी बेटी के लिए दुखी ह्रदय से अपनी पत्नी को समुद्र में डूब जाने को अकेला छोड़ दिया .
कहानी ख़त्म हो गयी पूरी क्लास मौन थी
टीचर समझ चुकी थी छात्रों को कहानी का मोरल समझ आ चूका था .
संसार मे अच्छाई और बुराई दोनों है,
लेकिन उनके पीछे दोनों मे बहुत जटिलताएं भी है,
जो परिस्थितियों पर निर्भर होती है,
और उन्हें समझना कठिन होता है .
इसीलिए हमें जो सामने दिख रहा है उस पर सतही तौर से देख कर अपनी राय नहीं बनाना चाहिए ,
जब तक हम पूरी बात समझ ना लें
अगर कोई किसी की मदद करता है तो उसका मतलब यह नहीं की वो एहसान कर रहा है,
बल्कि ये है की वो दोस्ती का मतलब समझता है
अगर कोई किसी से झगडा हो जाने के बाद माफ़ी मांग लेता है तो मतलब यह नहीं की वो डर गया या वो गलत था,
लेकिन यह है की वो मानवता के मूल्यों को समझता है .
कोई अपने कार्यस्थल पर पूरा काम निष्ठा से करता है तो मतलब यह नहीं की वो डरता है,
बल्कि वो श्रम का महत्त्व समझता है और देश के विकास मे अपना योगदान करता है .
अगर कोई किसी की मदद करने को तत्पर है तो उसका मतलब ये नहीं की वो फ़ालतू है या आपसे कुछ चाहता है, बल्कि ये है की वो अपना एक दोस्त खोना नही चाहता......

बालक एडीसन

बालक एडीसन को विज्ञान में बहुत रुचि थी। वह उस विषय में जानना और कुछ करना चाहता था। पर घर की स्थिति ऐसी न थी जो पढ़ाई का खर्च उठा सकें, साथ ही पेट भी भरता रहे। उसकी अकेली माता ही घर चलाती थी।
एडीसन और उसकी माता ने सलाह की कि किसी वैज्ञानिक के यहाँ उसको रख दिया जाय। जहाँ वह उनके घर का काम भी करता रहे, पढ़ता भी रहे, वैज्ञानिक प्रयोगों का पर्यवेक्षण भी करता रहे। एडीसन की माता इस प्रयोजन के लिए लड़के को कितने ही वैज्ञानिकों के पास लेकर गई, पर किसी ने भी इस झंझट में पड़ना स्वीकार न किया।
अन्त में एक वैज्ञानिक ने उसे दूसरे दिन लाने को कहा ताकि वह उसकी मौलिक प्रतिभा को जाँच सके और वह यदि उपयुक्त हो तो उसे अपने यहाँ रख सके। माता दूसरे दिन नियत समय पर लड़के को लेकर पहुँची।
वैज्ञानिक ने लड़के को झाड़ू थमाते हुए कहा-बच्चे इस कमरे को ठीक तरह झाड़ू लगाकर लाओ। लड़के ने पूरा मनोयोग लगाया और न कमरे के फर्श को साफ किया वरन् दीवारों छतों फर्नीचर को इस सफाई और व्यवस्था से सजाया कि उसकी समग्र प्रतिभा उस छोटे काम में ही लगी दीख पड़ी।
परीक्षा में लड़का उत्तीर्ण हुआ उसे वैज्ञानिक ने अपने घर रख लिया। छोटे मोटे घरेलू कार्यों के अतिरिक्त उससे अधिकतर वैज्ञानिक कार्य ही कराते। दिलचस्पी और समझदारी का समन्वय हुआ तो उसके सभी क्रिया-कलाप बढ़िया स्तर के होने लगे। वैज्ञानिक क्षेत्र में भी उसने असाधारण वरीयता प्राप्त कर ली। बड़ा होने पर उनने अनेकों वैज्ञानिक आविष्कार किये और यश के साथ धन भी कमाया।

योग्यता और उपलब्धि

एक कछुआ यह सोचकर बड़ा दुखी रहता था, कि पक्षीगण बड़ी आसानी से आकाश मेँ उड़ा करते है, परन्तु मैँ नही उड़ पाता । वह मन ही मन यह सोचविचार कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि कोई मुझे एक बार भी आकाश मेँ पहुचा दे तो फिर मै भी पक्षियो की तरह ही उड़ते हुये विचरण किया करूँ।
एक दिन उसने एक गरूड़ पक्षी के पास जाकर कहा– “भाई! यदि तुम दया करके मुझे एक बार आकाश मेँ पहुँचा दो तो मैँ समुद्रतल से सारे रत्न निकालकर तुम्हे दे दुँगा। मुझे आकाश मे उड़ते हुऐ विचरण करने की बड़ी ईच्छा हो रही है।“
कछुए की प्रार्थना तथा आकांक्षा सुनकर गरुड़ बोला– “सुनो भाई! तुम जो चाहते हो उसका पूरा हो पाना असम्भव है, क्युकि अपनी क्षमता से ज्यादा आकांक्षा कभी पूरी नही हो पाती।“
परन्तु कछुआ अपनी जिद पे अड़ा रहा, और बोला- “बस तुम मुझे एक बार उपर पहुँचा दो, मैँ उड़ सकता हुँ, और उड़ुँगा। और यदि नही उड़ सका तो गिरकर मर जाऊंगा, इसके लिये तुम्हे चिँता करने की जरुरत नही।“
तब गरुड़ ने थोड़ा सा हँसकर कछुए को उठा लिया और काफी उँचाई पर पहुँचा दिया। उसने कहा– “अब तुम उड़ना आरम्भ करो।
इतना कहकर उसने कछुए को छोड़ दिया। उसके छोड़ते ही कछुआ एक पहाड़ी पर जा गिरा और गिरते ही उसके प्राण चले गये।
कहानी का तत्व ये है कि बिना योग्यता के उपलब्धियाँ दूर की कौडियाँ ही रहेंगी। अर्थात अपनी क्षमता को पहचानिये और उसी के अनुसार अपनी अकांक्षाओं को बढाइये। फिर भी अगर आप अधिक पाना चाहते हैं तो पहले स्वयं को उसे प्राप्त करने और धारण करने के काबिल बनाइये। अन्यथा अपनी क्षमता से ज्यादा आकांक्षा करने पर परिणाम वही निकलेगा जो कछुए को मिला॥

 

आभासी दुनिया से बाहर निकलना

ईमेल, फेसबुक, ट्विटर, चैट, मोबाइल और शेयरिंग की दुनिया में यह बहुत संभव है कि आप वास्तविक दुनिया से दूर होते जाएँ. ये चीज़ें बुरी नहीं हैं लेकिन ये वास्तविक दुनिया में आमने-सामने घटित होनेवाले संपर्क का स्थान नहीं ले सकतीं. लोगों से मेलमिलाप रखने, उनके सुख-दुःख में शरीक होने से ज्यादा कनेक्टिंग और कुछ नहीं है. आप चाहे जिस विधि से लोगों से जुड़ना चाहें, आपका लक्ष्य होना चाहिए कि आप लम्बे समय के लिए जुड़ें. दोस्तों की संख्या नहीं बल्कि उनके साथ की कीमत होती है.

बोनस टिप:

हम कई अवसरों पर खुद को पीछे कर देते हैं क्योंकि हमें कुछ पता नहीं होता या हम यह नहीं जानते कि शुरुआत कहाँ से करें. ऐसे में “मैं नहीं जानता” कहने के बजाय “मैं यह जानकर रहूँगा” कहने की आदत डालें. यह टिप दिखने में आसान है पर बड़े करिश्मे कर सकती है. इसे अपनाकर आप बिजनेस में आगे रहने के लिए ज़रूरी आक्रामकता दिखा सकते हैं. आप योजनाबद्ध तरीके से अपनी किताबें छपवा सकते हैं. और यदि आप ठान ही लें तो पूरी दुनिया घूमने के लिए भी निकल सकते हैं. संकल्प लें कि आप जानकारी नहीं होने को अपनी प्रगति की राह का रोड़ा नहीं बनने देंगे.

अपने हुनर और काबिलियत को निखारें:

पेन और पेपर लें. पेपर के बीच एक लाइन खींचकर दो कॉलम बनायें. पहले कॉलम में अपने पिछले तीस दिनों के सारे गैरज़रूरी खर्चे लिखें जैसे अनावश्यक कपड़ों, शौपिंग, जंक फ़ूड, सिनेमा, मौज-मजे में खर्च की गयी रकम. हर महीने चुकाए जाने वाले ज़रूरी बिलों की रकम इसमें शामिल न करें. अब दूसरे कॉलम में उन चीज़ों के बारे में लिखें जिन्हें आप पैसे की कमी के कारण कर नहीं पा रहे हैं. शायद आप किसी वर्कशौप या कोचिंग में जाना चाहते हों या आपको एक्सरसाइज बाइक खरीदनी हो. आप पहले कॉलम में किये गए खर्चों में कटौती करके दुसरे कॉलम में शामिल चीज़ों के लिए जगह बना सकते हैं.